वज़न- 2122 2122 2122 212 ग़ज़ल शम्'अ रोशन कर दी हमने तीरगी के सामने । टिक ना पाएगा अंधेरा रोशनी के सामने ॥ बिन थके चलते रहे गर मंजिलों की चाह में । हार जाती मुश्किलें भी आदमी के सामने ॥ पर्वतों से हौसलों को देखकर हैरान है । आसमां भी झुक गया है अब जमीं के सामने ॥ आबे जमजम चूमता है एड़ियों को तिफ़्ल की । हार कर बहता है चश्मा तिश्नगी के सामने ॥ रोज़ हों रोज़े हों चाहे या के हो कोई नमाज़ । मां की खिदमत है बड़ी हर बंदगी के सामने ॥ मैंने माना तू बड़ा है प्यासा रखता है मगर । ए समंदर तू है छोटा मुझ नदी के सामने ॥ खूबियों से भी नवाजा 'आरज़ू' अल्लाह ने । फिर भला क्यों हार जाऊं इक कमी के सामने ॥ -अंजुमन 'आरज़ू'©✍ 23/05/2019