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Showing posts from 2022

ग़ज़ल - 17 लब पे नग़्मा सजा लीजिए

लब    पे   नग़्मा   सजा   लीजिए रंज -ओ - ग़म गुनगुना लीजिए अपनी  कमियों के  एहसास को बाँसुरी    सा    बजा     लीजिए ख़ार मुश्किल के चुन चुन  सभी राह    आसाँ      बना   लीजिए दर्द  ने  मीर  -ओ - मीरा गढ़े दर्द   का  भी   मज़ा   लीजिए शम्स  हो  जाए  गर चे  गुरूब शम'अ बन  जगमगा  लीजिए सच  का दामन न छोड़ेंगे हम लाख   सूली   चढ़ा   लीजिए टूट   जाएँ   मरासिम   अगर राबता   फिर  बना   लीजिए झुक के क़दमों में माँ बाप के क़द  अना  का घटा  लीजिए आख़िरत  के  लिए 'आरज़ू' नेकियाँ कुछ कमा  लीजिए   -© अंजुमन आरज़ू     05/11/2019 रौशनी के हमसफ़र/17/2021 वज़्न -212 212 212

ग़ज़ल - 16 सहर से शाम तक सूरज सा चलना भी ज़रूरी है

सहर  से   शाम  तक   सूरज  सा  चलना  भी ज़रूरी है निकलना  भी   ज़रूरी  है   कि   ढलना  भी  ज़रूरी  है सितारे  शम'अ  जुगनू  चाँद  ने   मिल   रात  रौशन की हुकूमत  शम्स  की  कुछ   पल   बदलना  भी ज़रूरी है चराग़ाँ   कर   लिया    बाहर    मगर   अंदर  अंधेरा  है दिया  इक  इल्म  का  दिल  में तो  जलना भी ज़रुरी है जिन्हें  हसरत हो  बादल की  वो पहले धूप तो चख लें अगर है छाँव  की  ख़्वाहिश  तो  जलना भी ज़रूरी है बुलंदी  ठीक  है  लेकिन   जहाँ  अपनों से  मिलना हो वहाँ   झरनों  सा  पर्वत  से  फिसलना  भी  ज़रूरी है मुहब्बत माँ की आ'ला पर फ़रोग़-ए-आल की ख़ातिर इन्हें  वालिद  की  नज़रों  से  दहलना   भी  ज़रूरी है अगर  हर  चाह  पूरी  हो  तो  जीने में  मज़ा ही  क्या अधूरी  'आरज़ू'   दिल  में   मचलना  भी   ज़रूरी  है   -©अंजुमन 'आरज़ू'    15/10/2019 रौशनी के हमसफ़र/16/2021 वज़्न -1222 1222 1222 1222

ग़ज़ल-15 बस हौसलों से चाहता पहचान परिंदा

बस   हौसलों   से   चाहता   पहचान   परिंदा रखता  है   दिलों  में   यही   अरमान   परिंदा कुछ  दानों के  लालच में  लो  परवाज़ गँवाई अब   बंद  क़फ़स  में   हुआ   नादान  परिंदा रूदाद  सुनी  अर्श  से  तो  फ़र्ज़  समझ  कर अस्मत  के  लिए  चढ़  गया  परवान  परिंदा ग़श खा के गिरा  अर्श से वो  फ़र्श पे ज़ख़्मी फिर कुछ  दिनों का रह गया मेहमान परिंदा तन्हा  था  मगर  रग  में  रवाँ हौसला भी था मरते  हुए   भी  पा   गया   सम्मान   परिंदा जाँ-बाज़ है हिम्मत से जिया ज़ीस्त इसलिए कहला  रहा  है  आज भी  अरहान* परिंदा  अब 'आरज़ू' है ख़ुश कि बिना पंख जहां में परवाज़  ग़ज़ल  भर  रही  उनवान  परिंदा अरहान - राजा -© अंजुमन आरज़ू     11/10/2019  रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-15/पृष्ठ क्र• 28 वज़्न -221 1221 1221 122

ग़ज़ल-14 बिन तुम्हारे ये लगे सारी ही महफ़िल तन्हा

बिन  तुम्हारे  ये  लगे  सारी  ही महफ़िल तन्हा चाहिए  कब हमें तुम बिन  यहाँ  मंज़िल तन्हा बे-हुनर  को  मिला  ए'ज़ाज़   बड़े   जलसे में देखता रह  गया फ़न अपना वो क़ाबिल तन्हा क़ामयाबी  में  करे  हर  कोई  रिश्ता   क़ायम सहनी पड़ती है मगर राह  की मुश्किल तन्हा शम्स या शम'अ, क़मर हो कि  बशर हो कोई रौशनी के लिए  जलते सभी तिल तिल तन्हा साथ  जिसने  भी जहाँ  में दिया सच्चाई का रह  गया  वो ही ज़माने के  मुक़ाबिल  तन्हा हौसला   देख  के   हैरान   हुआ   तूफ़ाँ  भी हमने पतवार बिना पा लिया  साहिल  तन्हा लाज़मी  है  कि  ज़रुरत  भी  तवज़्ज़ो पाएँ 'आरज़ू' ही तो फ़क़त है नहीं क़ामिल* तन्हा  क़ामिल - संपूर्ण  -© अंजुमन आरज़ू      01/10/2019 रौशनी के हमसफ़र /2021 ग़ज़ल-14/पृष्ठ क्र• 27  वज़्न -2122  1122  1122  22/112

ग़ज़ल-13 ग़ौर से देखा तो ये सारा जहाँ तन्हा मिला

ग़ौर  से   देखा  तो   ये    सारा   जहाँ   तन्हा   मिला चाँद    तन्हा   रात   तन्हा   आसमाँ    तन्हा    मिला वो जो  महफ़िल  में  लगाता  फिर  रहा  था कहकहे राज़-ए-ग़म उसके भी  दिल में  हाँ निहाँ तन्हा मिला अपनी  तामीर -ए- ख़ुदी  में  हर  बशर मसरूफ़ है साथ  कितने  फ़र्द   हैं   पर  आशियाँ  तन्हा  मिला चश्मदीदाँ  थे   बहुत   उस    हादसे   के   भीड़  में  ख़ौफ़  के  मारे  मगर  बस  इक  बयाँ   तन्हा मिला साथ  पर्वत  कब   चले  हैं  राह  में  ये   सोच कर बह्र  की  चाहत में  इक  दरिया  रवाँ  तन्हा  मिला दूर    तन्हाई     करे    ऐसा    जहां   में   कौन  है जो मिला हो ख़ुद से ही फिर वो कहाँ तन्हा मिला 'आरज़ू'  ने  भी   सजा  ली   रश्क़  से  तन्हाइयाँ ओस  का मोती  चमकता जब  यहाँ तन्हा मिला -© अंजुमन आरज़ू     01/10/2019 रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-13/पृष्ठ क्र• 26  वज़्न-2122  2122  2122   212

ग़ज़ल-12 दिल में जो मेरे सच्चा इक़दाम नहीं होता

दिल  में  जो   मेरे  सच्चा   इक़दाम*  नहीं   होता  मंज़िल  न   मिली  होती   इक़राम*   नहीं   होता  जो अज़्म के हामिल हैं  कब  ठहरे  क़दम उनके जब  तक  न ज़फ़र  पा  लें  आराम  नहीं   होता हाक़िम की  हर इक  हाँ में हम भरते अगर हामी  गर्दिश  में   हमारा   फिर  अय्याम*  नहीं   होता  समझाइशें  देते  हैं  जिनको  न  समझ  कुछ भी बातों  के  सिवा  इनको  कुछ  काम  नहीं  होता रूदाद  क़बा*  की कुछ   अच्छी  हैं  अधूरी भी  हर   एक   फ़साने   का   अंजाम   नहीं   होता अल्लाह की मर्ज़ी भी लाज़िम है हर इक शय में सोचे  जो   फ़क़त   इंसाँ  वो  काम  नहीं  होता हालात  के  तूफाँ  में   तुम   साथ  निभाते  गर घर   मेरी   तमन्ना   का   नीलाम   नहीं   होता  इक़दाम - इरादा, इक़राम - मान सम्मान, अय्याम - समय, क़बा - जीवन   -©अंजुमन आरज़ू  09/09/2020  रौशनी के हमसफ़र /2021 ग़ज़ल-12/पृष्ठ क्र• 25 वज़्न  -  221 1222  221 1222

ग़ज़ल-11 ज़िंदगी का जैसा भी आग़ाज़ हो

ज़िंदगी    का    जैसा  भी   आग़ाज़  हो ख़त्म यूँ  हो, हम  पे  सब  को   नाज़ हो क्या  गिराएँ साज़िश - ए- दुश्मन  उसे ख़ुद  ख़ुदा जिसका यहाँ अफ़राज़* हो  बातों    में   मिश्री   सी  हो  शीरीनियाँ गुफ़्तग़ू    का   यूँ    मेरी    अंदाज़  हो बिन कहे  तुम  तक  पहुँच  जाए सदा पुर  असर    इतनी  मेरी   आवाज़ हो कुछ   ख़ुसूसी  काम  तो  हैं  लाज़मी चाहे  जितनी  ज़ीस्त  में  ईजाज़* हो  ये   नुमाइश   इश्क़  में  अच्छी  नहीं क्या  ज़रूरी  है  कि यूँ  पर्दाज़*  हो  कब  ज़ियादा  की  है   मेरी 'आरज़ू' बस फ़लक तक ही मेरी परवाज़ हो  अफ़राज़ - बुलंद करने वाला,  ईजाज़ - संक्षिप्तता, पर्दाज़ - प्रदर्शन -© अंजुमन 'आरज़ू'  24/08/2020 रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-11/पृष्ठ क्र• 24 वज़्न - 2122  2122  212

ग़ज़ल-10 आसमाँ पर बादलों की चित्रकारी चिट्ठियाँ

आसमाँ    पर    बादलों    की    चित्रकारी    चिट्ठियाँ शाम, शब, शबनम, शजर, गुल रब की प्यारी चिट्ठियाँ ले   के  आतीं   हैं   कभी   उम्मीद   के   सूरज   कई या   कभी  ढलती   हुई   शामों   सी   हारी   चिट्ठियाँ रात  में   तारीक़ियाँ   बढ़ने   लगीं  तो  रब   ने  फिर चाँद   तारे   शम'अ   सी    रौशन    उतारी   चिट्ठियाँ दो  घड़ी   की  ज़िंदगी   का   रोना  रोना  छोड़  कर गुल  पे  शबनम  लिख  रही  है  देख प्यारी  चिट्ठियाँ   उस  शजर  की  हर  हरी  पत्ती  ये  सबसे  कह रही धूप  सह  कर  छाँव  की  लिक्खी  है सारी चिट्ठियाँ ये  परिंदे   दे    रहे    हैं     दावतें    परवाज़     की लिख  रहे  नाज़ुक  परों  से  बारी   बारी    चिट्ठियाँ पढ़  सको  तो पढ़  के देखो ये  ख़ुदा ने ख़ुद लिखीं हैं  निहाँ  क़ुदरत  के हर  मंज़र  में  न्यारी  चिट्ठियाँ अश्क़  का  सैलाब  आँखों  में  मगर   देखो    ज़रा 'आरज़ू' ने कब  लिखीं  हैं  रब  को  खारी चिट्ठियाँ -©अंजुमन 'आरज़ू' 20/09/2019 रौशनी के हमसफ़र/10/2021 ग़ज़ल-10/पृष्ठ क्र• 23  

ग़ज़ल-09 जीती तलवार से हर बार क़लम की ताक़त

जीती  तलवार  से   हर  बार  क़लम  की  ताक़त जीत   के  पहने   गले   हार   क़लम  की  ताक़त पाठ   गीता  का   पढ़ाती  है   कभी   अर्जुन को रोकती   है   कभी  तक़रार   क़लम  की  ताक़त बुद्ध  का  ज्ञान  शरण  संघ   पिटक  में   भरकर हाँ  बदल  सकती  है  संसार  क़लम  की ताक़त सूर   रसखान   की   वाणी  में   संग   राधा   के गा  रही  कृष्ण  का  सिंगार  क़लम  की  ताक़त ओज  में  डूब  के  भूषण  की  क़लम  गाती  है सबको करती है  ये हुशियार  क़लम की ताक़त ये   जहालत   के   समुंदर   से   बचा  लेती  है बनके  मँझधार में  पतवार  क़लम  की ताक़त गुल खिलाती है सदा प्यार के गुलशन गुलशन दूर  नफ़रत  के  करे  ख़ार  क़लम  की ताक़त 'आरज़ू' को यही  लायी  है  मुक़ाबिल  सबके है  निराधार  की  आधार  क़लम  की  ताक़त -© अंजुमन 'आरज़ू'   रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-09/पृष्ठ क्र• 22

ग़ज़ल-08 इन क़िताबों में निहा* है ज़िंदगी का फ़लसफ़ा

इन  क़िताबों  में  निहा*   है   ज़िंदगी  का फ़लसफ़ा ये  ख़मोशी  से   बयाँ  करतीं   सदी  का  फ़लसफ़ा बनके ज़ीना* हर बशर को जीना+ सिखलाती क़िताब   इनमें  बातिन* है  बुलंदी की  ख़ुशी  का  फ़लसफ़ा ये  हमेशा  पैदा   करतीं  हैं   सियह   अल्फ़ाज़  से पढ़ने  वालों   के  दिलों  में  रौशनी  का  फ़लसफ़ा  क्या   क़िताबों   से  बड़ा   कोई    यहाँ  उस्ताद  है थाम  कर  उंगली  सिखातीं  रहबरी  का फ़लसफ़ा  हमसफ़र  बन  कर  सफ़र  आसान करती रात का हर  सफ़े  पर  है  चमकता  चाँदनी  का  फ़लसफ़ा इन  क़िताबों  में   हैं  गहरे   इल्म  के   दरिया  कई काश  मुझ  में  हो  हमेशा  तिश्नगी   का  फ़लसफ़ा सूफ़ियाना   दिल   की   मेरे   अब  यही  है 'आरज़ू' ज़िंदगी  भर   मैं   निभाऊँ   सादगी  का  फ़लसफ़ा  निहाँ - छिपा हुआ, ज़ीना - सीढ़ी, जीना - जीवन, बातिन - छिपा हुआ  -© अंजुमन 'आरज़ू'  04/09/2019 रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-08/पृष्ठ क्र• 21  वज़्न -2122 2122 2122 212

ग़ज़ल-07 गले मिलीं हैं यहाँ दो ज़बान काग़ज़ पर

गले   मिलीं  हैं  यहाँ  दो  ज़बान  काग़ज़  पर भरे  ये   हिंद   की   उर्दू   उड़ान  काग़ज़  पर  न  मज़हबों   की   है   दीवार   दरमियाँ  कोई कबीर   मीर  का   देखो   बयान   काग़ज़ पर रहीम   वृंद  के   दोहे   हों  या  के  हो  मानस मचा  के  धूम  रखे   कुल  जहान  काग़ज़ पर कहे  हैं  कितने  सवैये  किशन  की  चाहत में अदब की दुनिया में रसखान शान काग़ज़ पर नज़ीर   झूम   रहे    रंग  की   गा  कर  नज़्में है  जायसी  की  अमर  दास्तान  काग़ज़  पर सियासतों  ने  लगायी है  उलझनों की अगन है  बे सबब की बहस  खींचतान  काग़ज़ पर नहीं  है  घर  कोई  बेटी  का  इसलिए  देखो बना रही  है वो  कितने  मकान  काग़ज़ पर ज़मीं  पे  रहते  दिलों  में  ये  'आरज़ू'  जागी उतार  लाना  है अब  आसमान  काग़ज़ पर -© अंजुमन 'आरज़ू'     22/08/2019  रौशनी के हमसफ़र/2021 ग़ज़ल-07/पृष्ठ क्र• 20 वज़्न -1212 1122 1212  22

ग़ज़ल-06 शम'अ जुगनू चाँद तारे रौशनी के हमसफ़र

शम'अ  जुगनू   चाँद  तारे   रौशनी  के हमसफ़र हैं  ये  कितने   माह -पारे*  रौशनी के हमसफ़र  जुलमतों  से  कब  ये  हारे  रौशनी  के हमसफ़र हौसले   जब   हैं   हमारे   रौशनी   के हमसफ़र अपनी धीमी सी ज़िया से शब को कर आरास्ता मह्र*  डूबा तो   सितारे   रौशनी   के  हमसफ़र  तीरगी  में   ज़िंदगी  की  आज़माइश  के   लिए करके  बैठे  हैं   किनारे  रौशनी   के   हमसफ़र नूर  के ज़ामिन* ये  जुगनू   घूमते   हैं  चार  सू  कब रहें  हो  कर इजारे*  रौशनी के  हमसफ़र  साज़िशों में हो  के शामिल ये  हवा के  साथ में कर भी सकते हैं  ख़सारे* रौशनी के हमसफ़र  वालदेन और हीरे जैसे,शम्स से उस्ताद अनीस*  हैं  मुकम्मल  ये   इदारे*  रौशनी  के  हमसफ़र  यूँ हुआ महसूस हर शब देख  कर जलते चराग़ कर  रहे  हैं  इस्तिख़ारे*  रौशनी  के  हमसफ़र  कैसे  रौशन है जहाँ माँ  की  निदा* से 'आरज़ू'  देख   हैराँ   हैं  ये  सारे   रौशनी  के  हमसफ़र  -© अंजुमन 'आरज़ू'   30/11/2020 रौशनी के हमसफ़र/2021  ग़ज़ल-06/ पृष्ठ क्र•19 वज़्न - 2122 2122 2122 212  माह -पारे = सुंदर, मह्र = सूरज, रवि, ज़ामिन = ज़िम्मेदार, इजारे = नियंत्रित, ख़सारे

ग़ज़ल-05 -मुझे गर वक़्त अव्वल लिख रहा है

मुझे  गर   वक़्त  अव्वल    लिख   रहा  है मेरे  वालिद  को  अफ़ज़ल   लिख  रहा  है मेरा    किरदार   उनका   नारियल - दिल बड़ी   सख़्ती  से   कोमल   लिख  रहा  है मेरे   अब्बा   की  रूदाद -ए - मशक्कत पुराना    एक    पीपल    लिख    रहा   है है  जो  रोज़ी  की   छागल   पास   उनके मेरा  दिल  उसको  बादल   लिख  रहा है मेरे   वालिद  की   मेहनत   का   पसीना मुअत्तर   एक    संदल    लिख   रहा   है जो  मुझ में  है  उन्हीं  सा  इक  जियाला सरल मुश्किल को  हर पल लिख रहा है अधूरी    'आरज़ू'   को   अज़्म   उनका मुनव्वर  और   मुकम्मल  लिख  रहा है -©अंजुमन 'आरज़ू'    23/01/2021  रौशनी के हमसफ़र /2021 पृष्ठ क्र• 18 /ग़ज़ल-05  वज़्न-1222 1222 122

ग़ज़ल-04 -इस जहाँ में कोई माँ-सा पारसा मुमकिन नहीं

इस  जहाँ  में  कोई माँ-सा  पारसा*  मुमकिन नहीं  चाहे  जो    बेलौस*  ऐसा   आश्ना+ मुमकिन  नहीं  रूठ  जाए माँ  तो  कुछ  कहती नहीं  रोती  है बस माँ  के  जैसा  भी  हो  कोई  दूसरा  मुमकिन  नहीं माँ   बिना   दीपावली   के   दीप  भी  हैं   बेज़िया ईद  की  रौनक़ ये माँ  बिन  दे मज़ा मुमकिन नहीं हर  घड़ी  साये  सा  जब है  साथ में माँ का वजूद मुझको  तन्हाई   सताये   बाख़ुदा   मुमकिन  नहीं माँ की ख़िदमत हम करें ता-उम्र तो भी कम ही है माँ का  एहसाँ  उतरे  ऐसा  रास्ता  मुमकिन  नहीं माँ दुआ-ए-नूर*  दम करती  है मुझ पर तो भला   मेरी  राहों  में  अँधेरा   हो  घना   मुमकिन   नहीं मुस्कुराहट मेरे  लब  की  है  जो  माँ की 'आरज़ू' मेरे अश्क़ों से  हो  उनका सामना  मुमकिन नहीं  पारसा - पवित्र, बेलौस - सच्ची, आश्ना - प्रेमी, दुआ-ए-नूर - प्रकाश की प्रार्थना  -© अंजुमन 'आरज़ू' 15/09/2020 रौशनी के हमसफ़र/04/2021 पृष्ठ क्र• 17 ग़ज़ल-04 वज़्न - 2122  2122  2122  212

03-नअ़त-ए-पाक

ख़ल्क़  के  पेशवा   की   आमद  है  ख़ातिम-उल-अंबिया की  आमद है रहमतों  की  ब-हर  सू  है   बारिश अहमद-ए-मुजतबा  की  आमद है जिस ने हम पर  हयात की  आसाँ ऐसे  मुश्किल कुशा  की  आमद है जगमगा    उठ्ठा   है    जहाँ   सारा आज  नुरुल-हुदा  की   आमद  है चाँद शक़ उंगली से  किया जिसने ऐसे  मो'जिज़-नुमा  की  आमद है जिस पे क़ुरआन का  नुज़ूल हुआ उस  हबीबे  ख़ुदा  की  आमद  है  क़ल्ब से भेजिए दरूद-ओ-सलाम सय्यद-उल-अंबिया  की आमद है जिस को मेराज  रब ने है  बख़्शी ऐसे कैफ़-उल-वरा  की आमद है  क्यों न  मसरूर*  'आरज़ू'  होगी  मरहबा  मुस्तफ़ा  की  आमद  है  मसरूर - आनंदित  -© अंजुमन 'आरज़ू'    29/10/2020 रौशनी के हमसफ़र/2021, पृष्ठ क्र• 16/ ग़ज़ल-03 वज़्न -2122 1212 22/112

हम्द-02 रब के बंदों से की महब्बत है

रब    के   बंदों  से   की  महब्बत  है अपनी  तो    बस   यही   इबादत  है सारी   तारीफ़   है   ख़ुदा   के   लिए जिसकी  दोनों  जहाँ  में  अज़मत है फूल     पत्तों    में    बेल    बूटों   में देखिए   रब   की   ही    इबारत   है शुक्र है  रब का  जो दिया  सो दिया अपनी क़िस्मत से कब शिकायत है ये   नमाज़ें    ज़कात    हज    रोज़े रब  को   पाने  की  ही   रवायत  है ग़म  में  भी   ढूंढ  ली   ख़ुशी   मैंने ये   हुनर   उसकी  ही   इनायत  है लाख    बेचैनियाँ    सही    लेकिन उसके   एहसास  से  ही   राहत है जिसके  दिल में  हो  नूर  ईमाँ का कब  उसे  तीरगी  से   दहशत  है 'आरज़ू'  ख़ल्क़* से   लड़ी तन्हा  रब के दम से ही  सारी हिम्मत है ख़ल्क़ - संसार, लोक समूह  -© अंजुमन 'आरज़ू'   14/12/2019 रौशनी के हमसफ़र /2021, पृष्ठ क्र• 15  वज़्न -2122 1212 22/112

हम्द 01 - ज़िक्र-ए-हक़ सुब्ह-ओ-शाम होता है

ज़िक्र-ए-हक़  सुब्ह-ओ-शाम  होता है विर्द    रब    का     क़लाम    होता  है वो  जो   रब   का   गुलाम    होता  है उसका    आला    मक़ाम     होता  है आब आतिश फ़लक ज़मीन-ओ-हवा सब   पे   उसका   निज़ाम   होता  है शम्स   ढलते   ही   चाँद  से  शब  में नूर      का     इंतज़ाम      होता    है वो   नुमायाँ   वही   निहाँ  हर  सिम्त उसका   हर   सू   क़याम    होता  है दिल   में  रब  का  ख़याल  आते ही ज़ीस्त   का   ग़म   तमाम   होता है 'आरज़ू'   हो  जिसे   फ़क़त  रब से क़ाबिल -ए - एहतराम   होता  है                -© अंजुमन 'आरज़ू'   31/07/2020 रौशनी के हमसफ़र /2021, पृष्ठ क्र• 14 वज़्न -2122 1212 22/112

फ़िहरिस्त (अनुक्रमणिका)

1- ज़िक्र-ए-हक़ सुब्ह-ओ-शाम होता है 2- रब के बंदों से की मुहब्बत है 3- ख़ल्क़ के पेशवा की आमद है 4- इस जहाँ में कोई माँ सा पारसा मुमकिन नहीं 5- मुझे गर वक़्त अव्वल लिख रहा है 6- शम'अ जुगनू चाँद तारे रौशनी के हमसफ़र 7- गले मिलीं हैं यहाँ दो ज़बान काग़ज़ पर 8- इन क़िताबों में निहाँ है ज़िंदगी का फ़लसफ़ा 9- जीती तलवार से हर बार क़लम की ताक़त 10- आसमाँ पर बादलों की चित्रकारी चिट्ठियाँ  11- ज़िंदगी का जैसा भी आग़ाज़ हो 12- दिल में जो मेरे सच्चा इक़दाम नहीं होता 13- गौर से देखा तो ये सारा जहाँ तन्हा मिला 14- बिन तुम्हारे ये लगे सारी ही महफ़िल तन्हा 15- बस हौसलों से चाहता पहचान परिंदा 16- सहर से शाम तक सूरज सा चलना भी ज़रूरी है 17- लब पे नग़्मा सजा लीजिए 18- जुनूँ हवस के ये बेटी निगल न जाएँ कहीं 19- ज़िंदगी इक कयास लगती है 20- हो गया नाकाम आख़िर किस लिए 21- यूँ तो दुनिया को मुख़्तसर देखा 22- लगन मंज़िल की हो जिनको सफ़र की बात करते हैं 23- उसी के याद रखता है जहाँ अंदाज़ बरसों तक 24- शम'ए-उम्मीद गर दिल में जल जाएगी 25- अपनी क़िस्मत को ख़ुद बदलता है 26- सबका फ़िरदौस जहाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

पेश-लफ़्ज़ (अपनी बात)

पेश-लफ़्ज़    अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम और बुज़ुर्गों की दुआओं से शे'री मजमूआ "रौशनी के हमसफ़र"  आपके पेश-ए-नज़र है ।      मैंने क़ाफ़िया पैमाई की कोशिश अपने ख़ाली वक़्त को क़ीमती बनाने के लिए शुरूअ की थी, वह कोशिश ग़ज़ल हुई या नहीं, यह कह पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है और जो बात मुमकिन ही नहीं उस पर अल्फ़ाज़ क्या ज़ाया करना । इससे बेहतर यह है कि वह बात की जाए जो निस्बतन इससे अहम है और जिसके बिना यह "पेश-लफ़्ज़" मुकम्मल भी नहीं होगा ।      हालांकि हमारे घर के छोटे से कुतुब ख़ाने में मीर-ओ-ग़ालिब , दाग़-ओ-मोमिन, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, निदा फ़ाज़ली, गुलज़ार, मीना कुमारी 'नाज़', परवीन शाकिर वगैरह मेयारी शाएरात व शो'अरा के दीवान और शे'री-मजमूए व अरूज़ की चंद कुतुब हैं लेकिन इन्हें पढ़ पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था ।अदब की तरफ़ माइल तो मैं बचपन ही से थी लेकिन पढ़ने लिखने की कुछ दिक़्क़तों की वजह से शुरुआत काफ़ी देर से हुई । नई ईजाद ने एंड्रॉयड प्लेटफॉर्म पर पढ़ पाना मेरे लिए कुछ आसान किया, क्योंकि यहाँ मैं सब कुछ सुन सकती हूँ । सो ग़ज़ल सीखने की शुरुआत इंटरनेट से

भूमिका - रौशनी के हमसफ़र

ख़ुश्बू-ए-सुख़न का ख़ुश गवार झोंका – अंजुमन ‘आरज़ू’  अंजुमन ‘आरज़ू’ जी का पहला शेरी मज्मूआ जिसका उनवान है 'रौशनी के हमसफ़र’आपकी महब्बतों के हवाले करना मेरे लिए बायस-ए-फ़ख्र और  पुर-ख़ुलूस अहसास है। इसकी इशाअत पर मैं आपको दिली मुबारक़बाद देता हूँ। किसी भी शाइर को आप उसको सुन कर पढ़ कर समझ सकते हैं, लिहाजा अंजुमन ‘आरज़ू’ साहिबा की शाइरी से आप इस मज्मूए के मार्फ़त वावस्ता हो रहे हैं तो उनके कलाम को पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि शाइरा ने नए और निखरे हुए अंदाज़ को अपनी शाइरी में न सिर्फ़ चुना है वल्कि ख़ूबसूरती से निभाया भी है,  ये अहसास मुसलसल आपके ज़ह्न और दिल को अपनी आगोश में लिए रहता है और शाइरा की कुव्वत-ए-गोयाई की तस्दीक भी करता है । मिसाल के तौर पर शेर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ - जिन्हें  हसरत हो  बादल की  वो पहले धूप तो चख लें अगर है छाँव  की  ख़्वाहिश  तो  जलना भी ज़रूरी है है   समुंदर  में  भी   मिठास   कोई तब  तो दरिया  को प्यास लगती है टूटे  हैं  आज  सच्ची  मुहब्बत  के  सब   भरम ग़ुरबत  कुछ  एक  रोज़  यूँ  आने  का शुक्रिया लहजे की नज़ाकत के साथ तस्वीरी सिफ़त वाले अशआर बहुत ही ख़ूबसूरत

इंतिसाब (समर्पण)

     "रौशनी की उन सभी आवाज़ों की नज़्र", जिन्हें सुनकर मेरी ज़िंदगी का सफ़र इल्म के नूर से रौशन हो सका.... असातीज़ा, वालदेन, भाई-बहन, अहबाब और...  ख़ास तौर पर, "माँ" की नज़्र..... जिनकी आवाज़ की तनवीर से मेरी तीरगी-सी ज़ीस्त, ताबिंदा हो सकी । रौशनी के हमसफ़र, पृष्ठ 3 अंजुमन 'आरज़ू'

रौशनी के हमसफ़र

रौशनी के हमसफ़र ग़ज़ल-संग्रह अंजुमन ‘आरज़ू’ छिंदवाड़ा म प्र               प्रकाशक       युगधारा फाउंडेशन एवं प्रकाशन            लखनऊ, उत्तरप्रदेश                               --×-- युगधारा फाउंडेशन एवं प्रकाशन कार्यालय - बशीरतगंज, लखनऊ उत्तर प्रदेश 226004 संपर्क ... अणुडाक... प्रथम संस्करण    : 2021 © अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू' जाम मार्ग उमरानाला, जिला छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश, भारत पिन - 480107 मो• न•- 9098 902567              9424 902567 ISBN - 978-81-948214-8-5 मूल्य         : ₹200/- वैधानिक चेतावनी - वैधानिक चेतावनी - मेरी अनुमति के बिना मेरे गीत, ग़ज़ल, कहानी आदि किसी भी रचना का कहीं पर भी व्यक्तिगत या व्यवसायिक प्रतिलिपि (कॉपी पेस्ट) न करें । मेरी सभी रचनाएँ कॉपीराइट एक्ट के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित हैं ।     अगर आप ऐसा करते पाए जाते हैं तो (#UCC_1308 etc Rome statute) इस नियम के तहत आपको दंडित किया जाएगा ।          धन्यवाद 🙏