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Showing posts from April, 2019

धूप के बिन सफर

ग़ज़ल धूप के बिन सफर में है साया नहीं शम'अ भी रात के बिन नुमाया नहीं । जग में है कौन जिस ने हमारी तरह दर्दो ग़म ज़िंदगी में उठाया नहीं । वेणु वीणा पखावज हो या आदमी चोट खाए बिना सुर में गाया नहीं । रात प्यारी हमें जुगनुओं की तरह रोशनी का सफर रास आया नहीं । रंग जमके जमाएंगे हम इसलिए तुमने महफिल में अपनी बुलाया नहीं मुद्दतों बाद जब मिल गया राह में वो मुझे देख कर मुस्कुराया नहीं । हर ग़ज़ल 'आरज़ू' की है जिसके लिए बस उसी ने इन्हें गुनगुनाया नहीं ।      -अंजुमन 'आरज़ू'©✍ 30/04/2019

मुस्कुराती रही

ग़ज़ल ज़िंदगी दरबदर आजमाती रही । पोंछ कर अश्क मैं मुस्कुराती रही ॥ राह के ख़ार से हौसला सींचकर । रोज़ उम्मीद के गुल खिलाती रही ॥ रात के बाद है रोशनी का सफ़र । फ़लसफ़ा ले सहर रोज़ आती रही ॥ देख आंगन में चिड़िया फुदकती हुई । मेरी नंही परी चहचहाती रही ॥ छाँव दे शाख़ से जब ये पत्ती गिरी । खाद बन पेड़ के काम आती रही ॥ रोज़ शामो सहर आरती ओ अज़ां । सर ज़मी हिंद की गुनगुनाती रही ॥ तीरग़ी जब बढ़ी ना डरी 'आरज़ू' । राग दीपक मगन हो के गाती रही ॥ -अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू' ©✍ 10/04/2019

उसके नाम से

ग़ज़ल       -अंजुमन 'आरज़ू'©✍ जब जब गले मिलेंगे यूँ पंडित इमाम से गोहर मिलेंगे देश को अब्दुल कलाम से । ऐसी हवा चली है सियासत की आजकल कोई ख़फ़ा अज़ां से कोई राम-राम से । मेहनत से हुई शीश महल जब ये झोपड़ी पत्थर उछालता है कोई इंतक़ाम से । कल रात जाग जाग सुलाई थी जीसकी याद फिर याद आ रहा है वही आज शाम से । कुछ इस तरह बसा है वो मेरे बज़ूद में मुझको पुकारता है कोई उसके नाम से । मुमकिन नहीं था जिनके बिना घर सँवारना बाहर किए गए हैं वो बद इंतजाम से । पाया है बुज़ुर्गों ने तज़ुर्बा अभी नया रखने लगे हैं काम वो बस अपने काम से । 21/04/2019

तृष्णा

          -अंजुमन 'आरज़ू'©✍ नन्हीं चिड़िया इस भीषण ग्रीष्म में खोजकर पानी की कुछ  बूंदें... उल्टी लटक कर बुझाती है अपनी तृष्णा. और जीवन पाकर उड़ जाती है अपने नन्हे पर खोल तलाशने छांव किसी पेड़ की डाल पर पर दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आते पेड़ कारण ...??? सीधे खड़े मानव की तृष्णा नहीं बुझती........ 24/04/2019

रिश्तों के मोती

रिश्तो के मोती          -अंजुमन आरज़ू©✍ पाक रिश्तो के एहसास के नेह से, भावनाओं के मोती निखर जाएंगे । प्यार की डोर से जब ये मोती बंधें, बन के माला अनोखी संवर जाएंगे । मोतियों की लड़ी सा ये परिवार है, डोर सा कायदा जिसका आधार है । छेद रूपी समर्पण जरूरी यहां, वरना रिश्तो के मोती बिखर जाएंगे । देख मौसम सुहाना ऋतुराज सा, जिंदगी का ये पतझर है नाराज सा । छेड़ कर मन की वीणा के सुर ताल को, गुनगुनाते रहेंगे जिधर जाएंगे । स्वप्न देखा जो हमने वो साकार है, मोती माला ये स्वागत को तैयार है । आज तो बस सफलता की घाटी चढ़ी, देख लेना अभी हम शिखर जाएंगे । 23/04/2019

बिरहन बेचारी

               -अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू' मैं थी इक धरती न्यारी सी, अपने सूरज की प्यारी सी । मुझको प्रियतम का प्रेम मिला, मेरे आंचल में फूल खिला । गोदी महकी फिर क्यारी सी ॥ मैं थी एक धरती न्यारी सी । मेरा बेटा मानव आया, बुद्धिजीवी सुंदर काया । पर उसे आ गया अहंकार, भूला मेरे सारे उपकार । मृगतृष्णा का विस्तार किया, मां का ही आंचल तार किया । अपने बेटे से हारी सी ॥1॥ मैं थी इक धरती न्यारी सी । राहों में वृक्ष की पंक्ति थी, प्रियतम से मेरी बनती थी। जब पुत्र मेरा मुझसे अकड़ा, सूरज से हुआ मेरा झगड़ा । अब वो भी आंख दिखाता है, और मुझ को बांझ बनाता है । पति-पुत्र प्रेम की मारी सी ॥2॥ मै थी इक धरती न्यारी सी । क्यों स्वार्थ भावना जागी है, सुमति मानव की भागी है । मै पति-पुत्र के बीच फँसी, निश दिन रोती कुछ रोज़ हँसी । चूनर मौसम की अस्त-व्यस्त, कब थामे प्रियतम प्रेम- हस्त । सोचूँ बिरहन बेचारी सी ॥3॥ मै थी इक धरती न्यारी सी । मैं थी इक धरती न्यारी सी । अपने सूरज की प्यारी सी ॥ ©®🙏✍

समय-गुरु

ये समय गुरु है सबसे बड़ा, कब इससे कोई जीता है । जो समय सिखाता है सबको, रामायण है वह गीता है ॥ हाथों में रखी रेती की तरह, ये जीवन फिसल रहा देखो । धीरज धारण करने वाला, ही तो इस जग में जीता है ॥ ये समय की सुई नुकीली है, घायल सब मन कर देती है । करता है समय तुरपाई भी, घावों को भी ये सीता है ॥ ये समय है गुरु सनातन से, आगे भी रहेगा ये भारी । मान किया न जिसने गुरु का, उसका ही दामन रीता है ॥ कैसे भी हो प्रश्नों के पत्थर, हर प्रश्न का देता है उत्तर । ये बड़ी महारत रखता है, ये ज्ञान का सागर पीता है ॥ ये समय गुरु है सबसे बड़ा, कब इससे कोई जीता है । जो समय सिखाता है सबको, रामायण है वह गीता है ॥ -अंजुमन 'आरज़ू' ©✍

ग़ज़ल - अल्फ़ाज़ की आवाज़

वज़्न-1222  1222  1222  1222                ग़ज़ल बड़े लोगों की सच्चाई हमें कुदरत बताती है । रखें प्यासा समंदर तिश्नगी नदिया बुझाती है ॥ करो जब दोस्ती तो अपने क़द को देखकर करना । मिली गंगा समंदर में तो कब गंगा कहाती है ॥ अगर ये भूख ना होती तो क्यों कर रक़्स ये होता । यही वो आग है जो रात दिन सबको नचाती है ॥ रची है साजिशें ऐसी कि सच को झूठ कर डाला । उसी झूठे को सच्चा मान दुनिया सर झुकाती है ॥ कहे तहजीब मुद्दत से कि बेटी रूप है माँ का । जनम लेने से पहले क्यों ये फिर दफनाई जाती है ॥ अंधेरे नफरतों के छू नहीं सकते हमारा दर । सदा रोशन रहे वो घर जहां माँ मुस्कुराती है ॥ यहां खामोशियां तेरी सुने क्या 'आरज़ू' कोई । जहां अल्फाज़ की आवाज़ भी मुश्किल से आती है ॥ 09/04/2019 ©®🙏    - सुश्री अंजुमन मंसूरी आरज़ू ✍ छिंदवाड़ा मप्र

जीवन सफर

अंकुरित हुई   नन्ही लाल कुमकुम सी सुंदर प्यारी कोपल फिर वह    कोपल बढ़ती  पल   पल मुस्काती और हरियाती हरीतिमा भी    कहाँ ठहरी, धीरे-धीरे हो   जाती पीली छाता है     फिर प्रोढ़ता का रंग सुनहरा सा प्यारा और अंत     में जो    रंग   आता जीवन की शाम होता ऐसे         ही तो   मानव     का जीवन सफर तमाम रचना तिथि 03/06/2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है ।      ©अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍

ग़ज़ल - ज़िंदगानी दर्द की

इक मुकम्मल दास्तां है ज़िंदगानी दर्द की । मुस्कुराते लब के पीछे है निशानी दर्द की ॥ ठोकरों के बीज बो कर सींचती है अश्क से । ग़म की फसलें सब्ज़ करती बागबानी दर्द की ॥ गंगा यमुना में मिलाते कारखानो का ज़हर । अब नदी का ये सफ़र भी है रवानी दर्द की ॥ जख्म ये ज्वालामुखी के है ज़मी दिखला रही । दास्तां शबनम सुनाती आसमानी दर्द की ॥ साथ बचपन से रहा है हमसफ़र बन के सदा । दिल हमारा हो गया है राजधानी दर्द की ॥ वस्ल से खुशियां मिलेंगी क्या ये सच है साथियों । राम सीता का मिलन भी है कहानी दर्द की ॥ सुर्ख़ चुनरी थी तमन्ना तुम मगर लाए सफेद । सुर्ख़रू हो मैंने ओढ़ी वो निशानी दर्द की ॥ सुन रहे हो गीत मेरे अश्क़ आंखों में लिए । क्या मेरे नग़मे हुए हैं तर्जुमानी दर्द की ॥ दर्द में बस दर्द ही हमको दिया ये सच नहीं । ये ग़ज़ल भी 'आरज़ू' है महरबानी दर्द की ॥ रचना तिथि 07/04/2019 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏      -सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

गरीबी गौरव गान

गरीबी  तो गौरव गान है । इसका बहुत सम्मान है । शबरी सा धीरज धर  के, कुछ तप भी करना पड़ता है । आस प्रभु की मन भरके, जग से लड़ना पड़ता है । तब बेर खाते श्री राम है ।। इसका बहुत सम्मान है ।। छोड़ के छप्पन भोग कृष्ण को, विदुर की कुटिया भायी। वैभव से कहीं ज्यादा प्रभु को, प्रीति गरीबी की ललचायी । लीला करते घनश्याम हैं ।। इसका बहुत सम्मान है ।। गरीबी तो गौरव गान है । इसका बहुत सम्मान है ।। रचना तिथि 27 तीन 2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏    -अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍

हिम्मत को सलाम

भीगे परों से उड़ के तूने छू लिया आसमान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। कोई नहीं सूरज का साथी तन्हा तमतमाता है । पर्वत के शिखरों पे चढ़ पाताल का तम भगाता है ।। जग का अकेले पोषण कर कहलाता है भगवान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। सो जाता जब थकके दिवाकर रोज निशा आती है । छा जाता जब घना अंधेरा जलते दिया बाती है । नन्हा सा दीपक भी देखो है कितना बलवान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। सीमा पर प्रहरी बन कर दुश्मन को धूल चटाये। जान भले ही दे दें लेकिन झंडा झुक ना पाये ।। दस दस पे भारी है मेरे हिन्द का एक जवान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। सबसे ऊँचे लोग हैं वो जो हिम्मत के बन्दे हैं । ना तो लूले और न लंगड़े ना ही ये अन्धे हैं ।। अक्षम कहकर इनका कभी ना करना तुम अपमान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। भीगे परों से उड़के तूने छू लिया आसमान । हिम्मत को सलाम है तेरा हौसला है महान ।। रचना तिथि 28 3 2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏     -सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

जुनून

नामुमकिन को मुमकिन कर दे ऐसा जज़्बा जुनून है । कोशिश करने वालों के तो सारे रंग मरून हैं ।। अपनी अपनी ज़िद पे अड़े हैं सीमा के दोनों ही छोर । वो भी अपनी माँ के बेटे हम भी तो हे सिरमोर ।। पर मातृभूमि कब चाहती अपने बेटों का खून है ।। नामुमकिन को मुमकिन कर दे ऐसा जज़्बा जुनून है ।। संतुष्टि न हो तो अटारी चैन कहाँ पाती है । और कहीं तो छोटी सी कुटिया भी मुस्काती है । दुनिया है कितनी सुंदर गर अंतर्मन में सुकून है ।। नामुमकिन को मुमकिन कर दे ऐसा जज़्बा जुनून है ।। रचना तिथि 29 3 2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है ©®🙏       -सुश्री अंजुमन मंसूरी आरजू ✍ छिंदवाड़ा मप्र

पवन पुत्र हनुमान

जिनके हृदय में राजते श्री राम हैं । अंजनी नंदन पवन पुत्र हनुमान हैं ।। प्रभु के संकट हर कहलाये संकटमोचन । सागर तर के लंका पहुँचे चार सौ योजन । श्री राम के भी बिगड़े बनाये काम हैं ।। अंजनी नंदन पवन पुत्र हनुमान हैं ।। जन्मोत्सव है आज तुम्हारा केसरी नंदन । कर लेना स्वीकार मेरा सिंदूरी वंदन । तुमको मिला अमरता का वरदान है ।। अंजनी नंदन पवन पुत्र हनुमान हैं ।। इतने गुणों का वर्णन मैं कैसे कर पाऊं । फिर भी श्रद्धा पूरित हो दो शब्द चढ़ाऊं । तुमको समर्पित मेरी कलम के गान हैं ।। अंजनी नंदन पवन पुत्र हनुमान हैं ।। जिनके हृदय में राजते श्रीराम हैं । अंजनी नंदन पवन पुत्र हनुमान हैं ॥ रचना तिथि 31 3 2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏      -सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

माँ की साधना

माँ का सारा जीवन इक साधना है । तुझ को समर्पित मेरी हर आराधना है ॥ कितनी बार ये सोचा होगा मर जाती हूँ । जीवन दुख का सागर है, मैं टर जाती हूँ । पर मेरे मुख को देख सही हर यातना है ॥1॥ तुझ को समर्पित मेरी हर आराधना है । सजदे में रहती है जब संकट आते हैं । तेरी दुआओं से हर दुख कट जाते हैं । मेरे लिए ही उसकी हर एक प्रार्थना है ॥2॥ तुझको समर्पित मेरी हर आराधना है । मेरे जीवन के सुख से तू मुस्काती है । उन्नत मैं होऊॅ तो तू सुख पाती है । करती प्रभु से मेरे हित की याचना है ॥3॥ तुझको समर्पित मेरी हर आराधना है । मेरी दृष्टि बन कर मुझ को राह दिखाती । आशावान रहो हर दम तुम ये समझाती । चलो संभल कर गिरने पर भी मात ना है ॥4॥ तुझको समर्पित मेरी हर आराधना है । मेरे लिए तूने जो भी सपने सजाए । अपने त्याग परिश्रम से साकार बनाएं । जीवन सूत साहस से अब कातना है ॥5॥ माँ का सारा जीवन इक साधना है । तुझ को समर्पित मेरी हर आराधना है ॥ रचना तिथि 26 3 2018 स्वरचित एवं मौलिक रचना ©🙏    -अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

संबंधों का ताना-बाना

हर सास का माँ सा हो दामन, खुशियों से भर दे जो जीवन । पर ऐसा कब हो पाता है, ना जाने कैसा नाता है । दोनों में रहती है अनबन, जैसे हों ये कोई दुश्मन ॥ जहाँ स्त्री पूजी जाती हैं, वहाँ बहुऐं क्यों जल जातीं हैं । वृद्धाश्रम भी क्यों जरूरी हैं, कुछ सासों की भी मजबूरी हैं । दोनों की समस्याएँ भारी, कब तक रहे गृहयुद्ध जारी । कब होगा जागृत सबका मन ॥ दोनों में रहती है अनबन ।........ हर बहू की मीठी हो बोली, हर बोल में मिश्री हो घोली । जब सासू 'माँ' बन जाऐगी, बहू भी बहू न रह पाएगी । तब रिश्तों का होगा संगम, खुशियँ बिखरेंगी मद्धम मद्धम । घर हो जाएगा चंदन वन।। खुशियों से भर दे जो दामन । हर सास का माँ सा हो दामन, खुशियों से भर दे जो दामन ॥ रचना तिथि- 23-3-2018 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏 काॅपीराइट सुरक्षित है ।🙏 - सुश्री अंजुमन मंसूरी आरज़ू✍ छिंदवाड़ा मप्र

ग़ज़ल - बागबां

रोशनी के झुरमुटों का हें बसेरा बागबां । दूर करते हैं सदा जीवन अंधेरा बागबां ॥ रात जब काली हुई तो ये अटल ध्रुव हो गए । जिंदगी में खींच लाते हैं सवेरा बागबां ॥ हँस के सहना भी सिखाएं धूप ये संघर्ष की । नेह का पानी भी सींचे फिर ये मेरा बागबां ॥ गम सहे खामोश रहकर लब पे मुस्कानें सजा । संतति के वास्ते खुशियों का डेरा बागबां ॥ खाद तहजीवी जड़ों में डालता है प्यार से । तू फले फूले यही चाहे ये तेरा बागबां ॥ रचना तिथि 5/04/2019 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏    - सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

नया साल

अब की जो नया साल हो,         उसमें सभी खुशहाल हो । जो आज तलक ना हुआ कभी,         हे प्रभु! वही कमाल हो ॥ विद्या पाए नन्ही पीढ़ी,         बचपन करे ना बाल श्रम । वृद्धों को ना जाना पड़े,         जीवन संध्या में वृद्धाश्रम । हर यौवन पाए रोजगार,        सम्मान से ऊंचा भाल हो ॥ अब की जो नया साल हो,         उसमें सभी खुशहाल हो । ये देश हमारा रोज चले,         अपनी संस्कृति फैलाने को । फिर भागीरथी कोई जागे,         समता गंगा ले आने को । भा रत हो भारतवासी अब,         संस्कार के कमल विशाल हो ॥ अब की जो नया साल हो,         उसमें सभी खुशहाल हो । हर और एकता पुष्प खिलें,         भारत बगिया हो धवल नवल । दुर्भाग्य देश का सो जाए,         नेतृत्व मिले इसे प्रबल कुशल । संतुलित कहें मितभाषी हो,         नेता ना अब वाचाल हो ॥ अब की जो नया साल हो,         उसमें सभी खुशहाल हो । नित ज्ञान प्रकाश प्रवाहित कर,         सब तिमिर हृदय का दूर करें । मां शारदे! वर दे, छंद मेरे,         रोशन जग को भरपूर करें । हर शब्द काव्य रंगोली हो,         और अर्थ अबीर गुलाल हो ॥ अब की जो नया साल ह

ग़ज़ल-धूप का ये सफर

बह्र-ए-मुत्दारिक  मुस्समन सालिम अरकान- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन वज़्न- 212 212 212 212               ग़ज़ल धूप का ये सफर है सुहाना नहीं । धूप बिन पर मिले आबोदाना नहीं ॥ पत्तियाँ कब हरी हो सकीं धूप बिन । छाँव को ये हुनर तो है आना नहीं ॥ थक के बैठीं हैं आराम को दो घड़ी । तितलियों को गुलों से उड़ाना नहीं ॥ नेकियाँ जब करो भूल जाना उन्हें । कह के अहसां किसी पे जताना नहीं ॥ जानती हूँ कि हँसना भला है मगर । तन्ज़ करके कभी मुस्कुराना नहीं ॥ वक्त के साथ ये खुद ही भर जाएंगे । जख़्म अपने किसी को दिखाना नहीं ॥ धान की पीर को बेटियाँ जानती । जिस जगह ये उगें वो ठिकाना नहीं ॥ मायका सासरा दो जहां है मगर । बेटियों का कहीं आशियाना नहीं ॥ मुश्किलें है बहुत मंज़िलें दूर हैं । थक के तुम 'आरज़ू' हार जाना नहीं ॥ रचना तिथि 02/04/2019 रचना स्वरचित एवं मौलिक है । ©®🙏      -सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा मप्र

मुस्कुराते रहेंगे

बह्र -बहरे मुतकारिब मुसम्मन सालिम अरक़ान- फ़ऊलुन  फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन वज़न - 122  122  122  122                ग़ज़ल ग़मो को छुपा मुस्कुराते रहेंगे । तबस्सुम लबों पर सजाते रहेंगे ॥ सियासत से पूछे वतन की ये माटी । रियाया को कब तक सताते रहेंगे ॥ नहीं इतनी प्यासी ज़मीं सरहदों की । लहू कब तलक यूँ बहाते रहेंगे ॥ जरा सी अना के लिए और कब तक । ये झूठी बिसातें बिछाते रहेंगे ॥ हवाओं सुनो ये हैं आशा के दीपक । उजाले हमेशा लुटाते रहेंगे ॥ खड़े राह में जो रुकावट के पर्वत । उन्हें हौंसलों से झुकाते रहेंगे ॥ सजा कर ग़मो की बहर क़ाफ़िये से । ग़ज़ल 'आरज़ू' गुनगुनाते रहेंगे ॥ रचना तिथि 01/04/2019 रचना स्वरचित एवं मौलिक है।    - सुश्री अंजुमन मंसूरी 'आरज़ू'✍ छिंदवाड़ा म प्र