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Showing posts from December, 2022

ग़ज़ल - 17 लब पे नग़्मा सजा लीजिए

लब    पे   नग़्मा   सजा   लीजिए रंज -ओ - ग़म गुनगुना लीजिए अपनी  कमियों के  एहसास को बाँसुरी    सा    बजा     लीजिए ख़ार मुश्किल के चुन चुन  सभी राह    आसाँ      बना   लीजिए दर्द  ने  मीर  -ओ - मीरा गढ़े दर्द   का  भी   मज़ा   लीजिए शम्स  हो  जाए  गर चे  गुरूब शम'अ बन  जगमगा  लीजिए सच  का दामन न छोड़ेंगे हम लाख   सूली   चढ़ा   लीजिए टूट   जाएँ   मरासिम   अगर राबता   फिर  बना   लीजिए झुक के क़दमों में माँ बाप के क़द  अना  का घटा  लीजिए आख़िरत  के  लिए 'आरज़ू' नेकियाँ कुछ कमा  लीजिए   -© अंजुमन आरज़ू     05/11/2019 रौशनी के हमसफ़र/17/2021 वज़्न -212 212 212

ग़ज़ल - 16 सहर से शाम तक सूरज सा चलना भी ज़रूरी है

सहर  से   शाम  तक   सूरज  सा  चलना  भी ज़रूरी है निकलना  भी   ज़रूरी  है   कि   ढलना  भी  ज़रूरी  है सितारे  शम'अ  जुगनू  चाँद  ने   मिल   रात  रौशन की हुकूमत  शम्स  की  कुछ   पल   बदलना  भी ज़रूरी है चराग़ाँ   कर   लिया    बाहर    मगर   अंदर  अंधेरा  है दिया  इक  इल्म  का  दिल  में तो  जलना भी ज़रुरी है जिन्हें  हसरत हो  बादल की  वो पहले धूप तो चख लें अगर है छाँव  की  ख़्वाहिश  तो  जलना भी ज़रूरी है बुलंदी  ठीक  है  लेकिन   जहाँ  अपनों से  मिलना हो वहाँ   झरनों  सा  पर्वत  से  फिसलना  भी  ज़रूरी है मुहब्बत माँ की आ'ला पर फ़रोग़-ए-आल की ख़ातिर इन्हें  वालिद  की  नज़रों  से  दहलना   भी  ज़रूरी है अगर  हर  चाह  पूरी  हो  तो  जीने में  मज़ा ही  क्या अधूरी  'आरज़ू'   दिल  में   मचलना  भी   ज़रूरी  है   -©अंजुमन 'आरज़ू'    15/10/2019 रौशनी के हमसफ़र/16/2021 वज़्न -1222 1222 1222 1222