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Showing posts from July, 2019

सूरज से बग़ावत

वज़्न    -   221 1222 221 1222 अर्कान -  मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन बह्र - बह्रे हज़ज मुसम्मन अख़रब _________________                ग़ज़ल सूरज को डुबोने को करता ये इबादत है । है चांद जिस से रोशन उससे ही अदावत है ॥ पुर नूर नहीं खुद पर छीनी है हुकूमत सब । क्यूं चांद को तारों से  फिर इतनी शिकायत है ॥ लड़ना था अंधेरों से पर रच रहा है साज़िश । जुगनू के इशारों पर सूरज से बग़ावत है ॥ है चांद तारा सूरज घर का चराग़ां बेटा । पर धूमकेतू बेटी ये कैसी रवायत है ॥ तुलते हैं यहाँ  रिश्ते दौलत के तराज़ू में । मतलब से रखें मतलब हर रिश्ता तिज़ारत है ॥ रिश्ते थे ख़ुदा जैसे रोते हैं ज़ुदा हो के । बदले हैं मरासिम सब नुक्ते की हिमाकत है ॥ हिम्मत वो जगाता है मुश्किल से निपटने की । फिर फ़िक्र करें  हम क्यों जब उस की इनायत है ॥ -अंजुमन आरज़ू ©✍ 08/07/2019

न अब जगमग आना हुआ

ग़ज़ल दूर परदेस में आब ओ दाना हुआ । आज बेटा भी घर से रवाना हुआ ॥ भूलकर फ़र्ज़ जब हक़ की चाहत बड़ी । रेज़ा रेज़ा हर इक आशियाना हुआ ॥ रच के साजिश किए तर्क़ रिश्ते सभी । मेरी बातों का तो बस बहाना हुआ ॥ तेल बाती दिये में हुई अनबनें । है अंधेरा न अब जगमगाना हुआ ॥ फिर न आए पलट कर कभी इस तरफ । छोड़ कर वो गए हैं ज़माना हुआ ॥ तेरी बातों से कुछ चोट ऐसी लगी । गम में डूबा हुआ ये तराना हुआ ॥ अब न बाकी रही कोई भी 'आरज़ू' । एक मुद्दत से दिल सूफियाना हुआ ॥    -अंजुमन 'आरज़ू'©✍ 01/07/2019