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ग़ज़ल - 16 सहर से शाम तक सूरज सा चलना भी ज़रूरी है

सहर  से   शाम  तक   सूरज  सा  चलना  भी ज़रूरी है
निकलना  भी   ज़रूरी  है   कि   ढलना  भी  ज़रूरी  है

सितारे  शम'अ  जुगनू  चाँद  ने   मिल   रात  रौशन की
हुकूमत  शम्स  की  कुछ   पल   बदलना  भी ज़रूरी है

चराग़ाँ   कर   लिया    बाहर    मगर   अंदर  अंधेरा  है
दिया  इक  इल्म  का  दिल  में तो  जलना भी ज़रुरी है

जिन्हें  हसरत हो  बादल की  वो पहले धूप तो चख लें
अगर है छाँव  की  ख़्वाहिश  तो  जलना भी ज़रूरी है

बुलंदी  ठीक  है  लेकिन   जहाँ  अपनों से  मिलना हो
वहाँ   झरनों  सा  पर्वत  से  फिसलना  भी  ज़रूरी है

मुहब्बत माँ की आ'ला पर फ़रोग़-ए-आल की ख़ातिर
इन्हें  वालिद  की  नज़रों  से  दहलना   भी  ज़रूरी है

अगर  हर  चाह  पूरी  हो  तो  जीने में  मज़ा ही  क्या
अधूरी  'आरज़ू'   दिल  में   मचलना  भी   ज़रूरी  है

  -©अंजुमन 'आरज़ू'    15/10/2019
रौशनी के हमसफ़र/16/2021
वज़्न -1222 1222 1222 1222

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