दिल में जो मेरे सच्चा इक़दाम* नहीं होता
मंज़िल न मिली होती इक़राम* नहीं होता
जो अज़्म के हामिल हैं कब ठहरे क़दम उनके
जब तक न ज़फ़र पा लें आराम नहीं होता
हाक़िम की हर इक हाँ में हम भरते अगर हामी
गर्दिश में हमारा फिर अय्याम* नहीं होता
समझाइशें देते हैं जिनको न समझ कुछ भी
बातों के सिवा इनको कुछ काम नहीं होता
रूदाद क़बा* की कुछ अच्छी हैं अधूरी भी
हर एक फ़साने का अंजाम नहीं होता
अल्लाह की मर्ज़ी भी लाज़िम है हर इक शय में
सोचे जो फ़क़त इंसाँ वो काम नहीं होता
हालात के तूफाँ में तुम साथ निभाते गर
घर मेरी तमन्ना का नीलाम नहीं होता
इक़दाम - इरादा, इक़राम - मान सम्मान, अय्याम - समय, क़बा - जीवन
-©अंजुमन आरज़ू
09/09/2020
रौशनी के हमसफ़र /2021
ग़ज़ल-12/पृष्ठ क्र• 25
वज़्न - 221 1222 221 1222
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