ज़िंदगी का जैसा भी आग़ाज़ हो
ख़त्म यूँ हो, हम पे सब को नाज़ हो
क्या गिराएँ साज़िश - ए- दुश्मन उसे
ख़ुद ख़ुदा जिसका यहाँ अफ़राज़* हो
बातों में मिश्री सी हो शीरीनियाँ
गुफ़्तग़ू का यूँ मेरी अंदाज़ हो
बिन कहे तुम तक पहुँच जाए सदा
पुर असर इतनी मेरी आवाज़ हो
कुछ ख़ुसूसी काम तो हैं लाज़मी
चाहे जितनी ज़ीस्त में ईजाज़* हो
ये नुमाइश इश्क़ में अच्छी नहीं
क्या ज़रूरी है कि यूँ पर्दाज़* हो
कब ज़ियादा की है मेरी 'आरज़ू'
बस फ़लक तक ही मेरी परवाज़ हो
अफ़राज़ - बुलंद करने वाला, ईजाज़ - संक्षिप्तता, पर्दाज़ - प्रदर्शन
-© अंजुमन 'आरज़ू'
24/08/2020
रौशनी के हमसफ़र/2021
ग़ज़ल-11/पृष्ठ क्र• 24
वज़्न - 2122 2122 212
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